संघर्ष, सृजन एवं सांस्कृतिक बोध की वैचारिकी 'परमिता' शोध पत्रिका के रूप में निरंतर प्रकाशित हो रही है। परमिता नये-नये विषयों एवं विमर्शों को लेकर संवेदनशील है, सदैव नवीन एवं समाजोपयोगी सशक्त हस्तक्षेप के साथ शिक्षा जगत में सकारात्मक तेवर के नेतृत्व हेतु परमिता प्रयत्नशील है। इस अवधि में पाठकों की तरफ से पत्रिका के प्रति अपेक्षाएँ बढ़ी हैं तथा जो सम्मान और विश्वास प्राप्त हुआ है, वही हमारे लिए प्रेरणा बिन्दु है। पाठकों की अपेक्षा और विश्वास की प्रेरणादीप के आलोक में परमिता' ज्ञान के इस अभियान में निरंतर प्रयत्नशील है। अकादमिक क्षेत्र में आजकल 'शोध' शब्द दुर्वचन के रूप में प्रयुक्त होने लगा है। फिर शोध-पत्रिका का आयोजन क्यों? शोध और आलोचना दो अलग-अलग पद्धतियाँ हैं, इसमें सन्देह नहीं, लेकिन आलोचना शोधात्मक हो इसमें क्या आपत्ति है? प्रारम्भ में आलोचना और शोध में ऐसा पार्थक्य नहीं था, जैसा आज देखने को मिल रहा है। आलोचना का जैसे-जैसे विस्तार होता गया वैसे-वैसे आलोचना से 'शोध' अलग होकर शोध-ग्रन्थ तक सिमट कर रह गया। आलोचना शोधपरक हो तो उसे पिछड़ा माना जाने लगा। शोध आलोचनात्मक हो तो कहा जाता है कि विद्यार्थी को शोध-प्रविधि का ज्ञान नहीं है। नतीजा यह हुई कि 'शोध-वृत्ति' गायब होती गयी और आलोचना के मानों में निरंतर गिरावट । वस्तुतः आलोचनात्मक मान अपने आप में कोई वायवीय दृष्टिकोण नहीं है। 'मूल्य' तब विकसित होते हैं, जब नया शोध हो, नयी दृष्टि, नया विचार आये। 'मूल्य' तब स्थिर होते हैं जब किसी सभ्यता के प्रगतिशील पक्षों का रेखांकन हो, इसलिए भी 'शोध-पत्रिका' की आवश्यकता है।

मूल्यों का हास, अनास्थाओं की संस्कृति, कुण्ठा और सन्त्रास का जीवन, अभाव और भ्रष्ट राजनीति, भौतिकता के प्रति लिप्सा, संघर्ष तथा प्राप्ति के प्रति व्यग्रता का बोध इत्यादि सन्दर्भों में हर पढ़ने-लिखने वाला व्यक्ति अपने मानदण्डों की स्थापना के लिए खेमे में विभक्त हो गया है।

उक्त बिन्दुओं के सन्दर्भ में 'परमिता' शिक्षा को एक ऐसा क्रियात्मक रुप देने की आवश्यकता महसूस करती है, जिसकी मांग सदैव बनी रहे। इस मांग की उन्नति स्थिर चित्त होकर की जाय, क्योंकि शिक्षित मनुष्यों की अगणित संख्या का निर्वाह राष्ट्र-सेवा के किसी एक ही अंग में कभी नहीं हो सकता। इसलिए बहुत सी शाखाओं में थोड़ा-थोड़ा परिवर्तन एवं अच्छे व्यक्तित्व के निर्माण से अधिक हो सकता है। इसके लिए आशा तथा उत्साह से परिपूर्ण उच्चकोटि की विद्या सीखे हुए युवा-शक्ति के ज्ञान-विज्ञान के क्रियात्मक उद्घाटन के लिए तत्परता से आह्वान की आवश्यकता है। तभी आज के संदर्भ में सच्ची हिन्द स्वराज्य की अवधारणा के मूल्यांकन का लाभ लोग उठा सकेंगे।